* अनिल
कुमार श्रीवास्तव
(1) परिचयः-
पान एक बहुवर्षीय
बेल है, जिसका उपयोग
हमारे देश में
पूजा-पाठ के साथ-साथ
खाने में भी होता
है। खाने के लिये
पान पत्ते के साथ-साथ
चूना कत्था तथा
सुपारी का प्रयोग
किया जाता है।
ऐसा लोक मत है कि
पान खाने से मुख
शुद्ध होता है, वहीं
पान से निकली लार
पाचन क्रिया को
तेज करती है, जिससे
भोजन आसानी से
पचता है। साथ ही
शरीर में स्फूर्ति
बनी रहती है। भारत
में पान की खेती
लगभग 50,000 है0 में
की जाती है। इसके
अतिरिक्त पान की
खेती बांग्लादेश, श्रीलंका, मलेशिया, सिंगापुर,थाईलैण्ड, फिलीपिंस, पापुआ, न्यूगिनी
आदि में भी सफलतापूर्वक
की जाती है।
(2) भारत
में पान की खेती:-
भारत वर्ष में
पान की खेती प्राचीन
काल से ही की जाती
है। अलग-अलग क्षेत्रों
में इसे अलग- अलग
नामों से पुकारा
जाता है। इसे संस्कृत
में नागबल्ली, ताम्बूल
हिन्दी भाषी क्षेत्रों
में पान मराठी
में पान/नागुरबेली, गुजराती
में पान/नागुरबेली
तमिल में बेटटीलई,तेलगू
में तमलपाकु, किल्ली, कन्नड़
में विलयादेली
और मलयालम में
बेटीलई नाम से
पुकारा जाता है।
देश में पान की
खेती करने वाले
राज्यों में प्रमुख
राज्य निम्न है।
राज्य
|
अनुमानित क्षेत्रफल
है0 में
|
कर्नाटक
|
8,957
|
तमिलनाडु
|
5,625
|
उड़ीसा
|
5,240
|
केरल
|
3,805
|
बिहार
|
4,200
|
पश्चिम बंगाल
|
3,625
|
असम (पूर्वोत्तर
राज्य)
|
3,480
|
आन्ध्रप्रदेश
|
3,250
|
महाराष्ट्र
|
2,950
|
उत्तर प्रदेश
|
2,750
|
मध्य प्रदेश
|
1,400
|
गुजरात
|
250
|
राजस्थान
|
150
|
(3) पान
के औषधीय गुण:- पान
अपने औषधीय गुणों
के कारण पौराणिक
काल से ही प्रयुक्त
होता रहा है। आयुर्वेद
के ग्रन्थ सुश्रुत
संहिता के अनुसार
पान गले की खरास
एवं खिचखिच को
मिटाता है। यह
मुंह के दुर्गन्ध
को दूर कर पाचन
शक्ति को बढ़ाता
है,
जबकि
कुचली ताजी पत्तियों
का लेप कटे-फटे
व घाव के सड़न को
रोकता है। अजीर्ण
एवं अरूचि के लिये
प्रायः खाने के
पूर्व पान के पत्ते
का प्रयोग काली
मिर्च के साथ तथा
सूखे कफ को निकालने
के लिये पान के
पत्ते का उपयोग
नमक व अजवायन के
साथ सोने के पूर्व
मुख में रखने व
प्रयोग करने पर
लाभ मिलता है।
(4) वानस्पतिक
विवरण/विन्यास:- पान
एक लताबर्गीय पौधा
है,
जिसकी
जड़ें छोटी कम
और अल्प शाखित
होती है। जबकि
तना लम्बे पोर, चोडी
पत्तियों वाले
पतले और शाखा बिहीन
होते हैं। इसकी
पत्तियों में क्लोरोप्लास्ट
की मात्रा अधिक
होती है। पान के
हरे तने के चारों
तरफ 5-8 सेमी0 लम्बी,6-12 सेमी0 छोटी
लसदार जडें निकलती
है,
जो
बेल को चढाने में
सहायक होती है।
आकार
में पान के पत्ते
लम्बे, चौड़े
व अण्डाकार होते
हैं, जबकि स्वाद
में पान चबाने
पर तीखा, सुगंधित
व मीठापन लिये
होता है।
(5) पान
का रसायन:- पान
में मुख्य रूप
से निम्न कार्बनिक
तत्व पाये जाते
हैं, इसमें प्रमुख
निम्न हैः-
फास्फोरस 0.13 0.61%
पौटेशियम 1.8 36%
कैल्शियम 0.58 1.3%
मैग्नीशियम 0.55 0.75%
कॉपर 20-27 पी0पी0एम0 -
जिंक 30-35 पी0पी0एम0 -
शर्करा 0.31-40 /ग्रा0 -
कीनौलिक
यौगिक 6.2-25.3 /ग्रा0 -
पान में
पाये जाने वाले
बिटामिनों में
ए,बी,सी प्रमुख
है।
नोट:- पान
में गंध व स्वाद
वाले उड़नशील तत्व
पाये जाते हैं, जो तैलीय
गुण के होते हैं।
ये तत्व ग्लोब्यूल
के रूप में पान
के “मीजोफिल” उत्तकों
में पाये जाते
हैं। जिनका विशेष
कार्य पान के पत्तियों
में वाष्पोत्सर्जन
को रोकना तथा फफूंद
संक्रमण से पत्तियों
को बचाना है। अलग-अलग
में ये गंध व स्वाद
वाले तत्व निम्न
अनुपात में पाये
जाते हैं। जैसे-
मीठा पान में 85 प्रतिशत
सौंफ जैसी गंध, कपूरी
पान में 0.10 प्रतिशत
कपूर जैसी गंध, बंगला
पान में 0.15-.20 प्रतिशत
लवंग जैसी, देशी
पान में 0.12 प्रतिशत
लबंग जैसी । उल्लेखनीय
है कि सभी प्रकार
के पान में यूजीनॉल
यौगिक पाया जाता
है,
जिससे
पान के पत्तों
में अनुपात के
अनुसार तीखापन
होता है। इसी प्रकार
मीठा पान में एथेनॉल
अच्छे अनुपात में
होता है, जिससे
इस प्रकार के पान
मीठे पान के रूप
में अधिक प्रयुक्त
होते हैं।
पान
की खेती
भारतवर्ष
में पान की खेती
अलग.-2 क्षेत्रों
में अलग-अलग प्रकार
से की जाती है जैसे-दक्षिण
भारत मेे जहां
वर्षा अधिक होती
है तथा आर्द्रता
अधिक होती है, में
पान प्राकृतिक
परिस्थितियों
में किया जाता
है। इसी प्रकार
आसाम तथा पूर्वोत्तर
भारत में जहां
वर्षा अधिक होती
है व तापमान सामान्य
रहता है, में
भी पान की खेती
प्राकृतिक रूप
में की जाती है।
जबकि उत्तर भारत
में जहां कडाके
की गर्मी तथा सर्दी
पडती है, में
पान की खेती संरक्षित
खेती के रूप में
की जाती है।इन
क्षेत्रों में
पान का प्राकृतिक
साधनों (बांस,घास
आदि) का प्रयोग
कर बरेजों का निर्माण
किया जाता है तथा
उनमें पान की आवश्यकतानुसार
नमी की व्यवस्था
कर बरेजों में
कृत्रिम आर्द्रता
की जाती है, जिससे
कि पान के बेलों
का उचित विकास
हो सके।

जलवायु:- अच्छे
पान की खेती के
लिये जलवायु की
परिस्थितियां
एक महत्वपूर्ण
कारक हैं। इसमें
पान की खेती के
लिये उचित तापमान,आर्द्रता,प्रकाश
व छाया,वायु की
स्थिति,मृदा
आदि महत्तवपूर्ण
कारक हैं। ऐसे
भारतवर्ष में पान
की खेती देश के
पश्चिमी तट,मुम्बई
का बसीन क्षेत्र, आसाम,मेघालय, त्रिपुरा
के पहाडी क्षत्रों, केरल
के तटवर्तीय क्षेत्रों
के साथ-साथ उत्तर
भारत के गर्म व
शुष्क क्षेत्रों, कम वर्षा
वाले कडप्पा, चित्तुर, अनन्तपुर
(आ0प्र0) पूना, सतारा, अहमदनगर
(महाराष्ट्र),बांदा, ललितपुर, महोबा
(उ0प्र0) छतरपुर
(म0प्र0) आदि
क्षेत्रों में
भी सफलतापूर्वक
की जाती है। पान
की उत्तम खेती
के लिये जलवायु
के विभिन्न घटकों
की आवश्यकता होती
है।जिनका विवरण
निम्न है-
1- तापमान:- पान
का बेल तापमान
के प्रति अति संवेदनशील
रहता है। पान के
बेल का उत्तम विकास
उन क्षेत्रों में
होता है, जहां
तापमान में परिवर्तन
मध्यम और न्यूनतम
होता है। पान की
खेती के लिये उत्तम
तापमान 28-35 डिग्री
सेल्सियस तक रहता
है।
2- प्रकाश
एवं छाया:- पान
की खेती के लिये
अच्छे प्रकाश व
उत्तम छाया की
आवश्यकता पडती
है। सामान्यतः
40-50 प्रतिशत
छाया तथा लम्बे
प्रकाश की अवधि
की आवश्यकता पान
की खेती को होती
है। इसका मुख्य
कारण पान की पत्तियों
में प्रकाश संश्लेषण
की क्रिया कर नियमित
होना होता है।
अच्छे प्रकाश
में पान के पत्तों
के क्लोरोफिल का
निर्माण अच्छा
होता है। फलतः
पान के पत्ते अच्छे
होते हैं व उत्पादन
अच्छा होता है।
3- आर्द्रता:- अच्छे
पान की खेती के
लिये अच्छे आर्द्रता
की आवश्यकता होती
है। उल्लेखनीय
है कि पान बेल
की बृद्वि सर्वाधिक
वर्षाकाल में होती
है,
जिसका
मुख्य कारण उत्तम
आर्द्रता का होना
है। अच्छे आर्द्रता
की स्थिति में
पत्तियों में पोषक
तत्वों का संचार
अच्छा होता है।
तना, पत्तियों
में बृद्वि अच्छी
होती है, जिससे
उत्पादन अच्छा
होता है।
4- वायु:- उल्लेखनीय
है कि वायु की गति
वाष्पन के दर को
प्रभावित करने
वाली मुख्य घटक
है। पान के खेती
के लिये जहां शुष्क
हवायें नुकसान
पहुंचाती है, वहीं
वर्षाकाल में नम
और आर्द्र हवायें
पान की खेती के
लिये अत्यन्त लाभदायक
होती है।
5- मृदा:- पान
की अच्छी खेती
के लिये महीन हयूमस
युक्त उपजाऊ मृदा
अत्यन्त लाभदायक
होती है। वैसे
पान की खेती देश
के विभिन्न क्षेत्रों
में बलुई, दोमट, लाल
व एल्युबियल मृदा
व लेटैराईट मृदा
में भी सफलतापूर्वक
की जाती है। पान
की खेती के लिये
उचित जल निकास
वाले प्रक्षेत्रों
की आवश्यकता होती
है। प्रदेश में
पान की खेती प्रायः
ढालू व टीलेनुमा
प्रक्षेत्रों
पर जहां जल निकास
की उत्तम व्यवस्था
हो,
में
की जाती है। पान
की खेती के लिये
7-7.5 पी0एच0 मान
वाली मृदा सर्वोत्तम
है।
देश में
पान की खेती अलग-2 क्षेत्रों
में कई विधियों
से की जाती है।
जेसे- तटवर्तीय
क्षेत्रों में
नारियल व सुपारी
के बागानों में, जबकि
दक्षित भारत में
पान की खेती खुली
संरक्षण शालाओं
में की जाती है।
जबकि उत्तर भारत
में पान की खेती
बंद संरक्षण शालाओं
में की जाती है, जिसे
”बरेजा
या भीट“ के नाम से
जाना जाता है।
नोट:- उत्तर भारत
में जलवायु गर्म
व शुष्क होती है, जहां
पान की खेती बंद
संरक्षणशालाओं
”बरेजों
में“ की जाती है।
इन क्षेत्रों में
बरेजों का निर्माण
एक विशेष प्रकार
से बनाया जाता
है। बरेजा निर्माण
में मुख्य रूप
से बांस के लटठे,बांस, सूखी
पत्तियों, सन व
घास, तार आदि के
माध्यम से किया
जाता है।
6- पान
खेती की विधि:- उत्तर
भारत में पान की
खेती हेतु कर्षण
क्रियायें 15 जनवरी
के बाद प्रारम्भ
होती है। पान की
अच्छी खेती के
लिये जमीन की गहरी
जुताई कर भूमि
को खुला छोड देते
हैं। उसके बाद
उसकी दो उथली जुताई
करते हैं, फिर
बरेजा का निर्माण
किया जाता है।
यह प्रक्रिया 15-20 फरवरी
तक पूर्ण कर ली
जाती है। तैयार
बरेजों में फरवरी
के अन्तिम सप्ताह
से लेकर 20 मार्च
तक पान बेलों की
रोपाई पंक्ति विधि
से दोहरे पान बेल
के रूप में की जाती
है उल्लेखनीय है
कि पान बेल के प्रत्येक
नोड़ पर जडें होती
है,
जो
उपयुक्त समय पाकर
मृदा में अपना
संचार करती है
व बेलों में प्रबर्द्वन
प्रारम्भ हो जाता
है। बीज के रोपण
के रूप में पान
बेल से मध्य भाग
की कलमें ली जाती
है,
जो
रोपण के लिये आदर्श
कलम होती है। पान
की बेल में अंकुरण
व प्रबर्द्वन अच्छा
हो इसके लिये पान
के कलमों को घास
से अच्छी प्रकार
मल्चिंग करते हुये
ढकते हैं व तीन
समय पानी का छिडकाव
करते हैं। चूंकि
मार्च से तापमान
काफी तीव्र गति
से बढता है। अतः
पौधों के संरक्षण
हेतु पानी देकर
नमी बनायी जाती
है,
जिससे
कि बरेजों में
आर्द्रता बनी रहे।
पान बेल के अच्छे
प्रवर्द्वन हेतु
बेलों के साथ-साथ
सन की
खेती भी करते हैं, जो पान
बेलों को आवश्यकतानुसार
छाया व सुरक्षा
प्रदान करता है।
उल्लेखनीय है कि
पान के बेलों को
यदि संरक्षित नही
किया जाता है, तो बेलों
में ताप का शीघ्र
असर होता है व बेले
में सिकुडन आती
है व पत्तियां
किनारे से झुलस
जाती है, जिससे
उत्पादन प्रभावित
होता है। अतः पान
की अच्छी खेती
के लिये सावधानी
और अच्छी देखभाल
की अत्यन्त आवश्यकता
होती है। अच्छी
खेती के लिये आवश्यक
है कि पान के कलम
का उपचार फफूदनाशक
से करने के साथ
उन्हें बृद्वि
नियमक से भी उपचारित
करें, जिससे कि जडों
का उचित विकास
हो सके।जैसे-एन0ए0ए0,आई0बी0ए0 आदि।
अच्छी
खेती के लिये पंक्ति
से पंक्ति की उचित
दूरी रखना आवश्यक
है। इसके लिये
आवश्यकतानुसार
पंक्ति से पंक्ति
की दूरी 30×30 सेमी0 या
45×45 सेमी0 रखी
जाती है।
7- भूमि
शोधन:- पान की फसल
को प्रभावित करने
वाले जीवाणु व
फंफूद को नष्ट
करने के लिये पान
कलम को रोपण के
पूर्व भूमि शोधन
करना आवश्यक है।
इसके लिये बोर्डो
मिश्रण के 1 प्रतिशत
सांद्रण घोल का
छिडकाव करते हैं।

8- कलमों
का उपचार:- पान
के कलमों को रोपाई
के समय के साथ-साथ
प्रबर्द्वन के
समय भी उपचार की
आवश्यकता होती
है। इसके लिये
बुवाई के पूर्व
भी मृदा उपचारित
करने हेतु 50 प्रतिशत
बोर्डा मिश्रण
के साथ 500 पी0पी0एम0 स्ट्रेप्टोसाईक्लिन
का प्रयोग करते
हैं। उसके बाद
बुवाई के पूर्व
भी उक्त मिश्रण
का प्रयोग बेलों
को फफूंद व जीवाणुओं
से बचाने के लिये
किया जाता है।


9- सहारा
देना:-पान की खेती
के लिये यह एक महत्तवपूर्ण
कार्य है। पान
की कलमें जब 6 सप्ताह
की हो जाती है तब
उन्हें बांस की
फन्टी,सनई या जूट
की डंडी का प्रयोग
कर बेलों को ऊपर
चढाते हैं। 7-8 सप्ताह
के उपरान्त बेलों
से कलम के पत्तों
को अलग किया जाता
है,
जिसे
”पेडी
का पान“ कहते है।
बाजार में इसकी
विशेष मांग होती
है तथा इसकी कीमत
भी सामान्य पान
पत्तों से अधिक
होती है। इस प्रकार
10-12 सप्ताह
बाद जब पान बेलें
1.5-2 फीट
की होती है, तो पान
के पत्तों की तुडाई
प्रारम्भ कर दी
जाती है। जब बेजें
2.5-3 मी0 या
8-10 फीट
की हो जाती है, तो बेलों
में पुनः उत्पादन
क्षमता विकसित
करने हेतु उन्हें
पुनर्जीवित किया
जाता है। इसके
लिये 8-10 माह पुरानी
बेलों को ऊपर से
0.5-7.5 सेमी0 छोडकर
15-20 सेमी0 व्यास
के छल्लों के रूप
में लपेट कर सहारे
के जड के पास रख
देते हैं व मिटटी
से आंशिक रूप से
दबा देते है व हल्की
सिंचाई कर देते
हैं।
उल्लेखनीय
है कि बेलों को
लिटाने से उनकी
बढबार सीमित हो
जाती है और पान
तोडने का कार्य
सरल हो जाता है।
साथ ही कुंडलित
बेलों से अधिक
मात्रा में किल्ले
फूटते हैं व जडें
निकलती है, जिससे
नई बेलों को अधिक
भोजन मिलता है
व उत्पादन अच्छा
मिलता है।
10- सिंचाई
व जल निकास व्यवस्था:- उत्तर
भारत में प्रति
दिन तीरन से चार
बार (गर्मियों
में) जाडों में
दो से तीनबार सिंचाई
की आवश्यकता होती
है। जल निकास की
उत्त व्यवस्था
भी पान की खेती
के लिये आवश्यक
है। अधिक नमी से
पान की जडें सड
जाती है, जिससे
उत्पादन प्रभावित
होता है। अतः पान
की खेती के लिये
ढालू नुमा स्थान
सर्वोत्तम है।

11- अन्त
शस्य:- पान की खेती
काफी लागत की खेती
होती है। अतः अच्छे
लाभ के लिये पान
की खेती में अन्तः
शस्य की फसलों
का उत्पादन किया
जाना आवश्यक है।
इसके लिये उत्तर
भारत में पान की
खेती के साथ-साथ
परवल,कुन्दरू, तरोई, लौकी,खीरा, मिर्च, अदरक, पोय,रतालू,पीपर
आदि की खेती सफलतापूर्वक
की जाती है।


12- फसल
चक्र:- अच्छे पान
की खेती के लिये
खाली समय में अच्छे
फसल चक्र का प्रयोग
करना चाहिये। इसके
लिये दलहनी फसलों
यथा-उर्द,मूंग,अरहर,मूंगफली
व हरे चारे की फसलें
यथा-सनई,ढैंचा,आदि
की खेती करनी चाहिये।
जिससे कि मृदा
में नत्रजन की
अच्छी मात्रा उपलब्ध
हो सके।
13- उर्वरक
की आवश्यकता:- पान
के बेलों को अच्छा
पोषक तत्व प्राप्त
हो इसके लिये प्रायः
पान की खेती में
उर्वरकों का प्रयोग
किया जाता है।
पान की खेती में
प्रायः कार्बनिक
तत्वों का प्रयोग
करते हैं। उत्तर
भारत में सरसों
,तिल,नीम
या अण्डी की खली
का प्रयोग किया
जाता है, जो जुलाई-अक्टूबर
में 15 दिन के अन्तराल
पर दिया जाता है।
वर्षाकाल के दिनों
में खली के साथ
थोडी मात्रा में
यूरिया का प्रयोग
भी किया जाता है।
प्रयोग
की विधि:- खली को
चूर्ण करके मिटटी
के पात्र में भिगो
दिया जाता है तथा
10 दिन
तक अपघटित होने
दिया जाता है।
उसके बाद उसे घोल
बनाकर बेल की जडों
पर दिया जाता है।
इसे और पौष्टिक
बनाने के लिये
उस घोल में गंेहू
चावल और चने के
आटे का प्रयोग
भी करते हैं।
मात्रा:-
प्रति है0 02 टन
खली का प्रयोग
पान की खेती के
लिये पूरे सत्र
में किया जाता
है। उल्लेखनीय
है कि प्रति है0 पान
बेल की आवश्यकता
नाइट्रोजनःफास्फोरसःपोटेशियम
का अनुपात क्रमशः
80:14:100 किग्रा0 होती
है,
जो
उक्त खली का प्रयोग
कर पान बेलों को
उपलब्ध करायी जाती
है।
नोट:- 1. पान
बेलों के उचित
बढबार व बृद्वि
के लिये सूक्ष्म
तत्वों और बृद्वि
नियामकों का प्रयोग
भी किया जाता है।
2.
भूमि
शोधन हेतु बोर्डोमिश्रण
के 1 प्रतिशत सान्द्रण
का प्रयोग करते
हैं तथा वर्षाकाल
समाप्त होने पर
पुनः बोर्डोमिश्रण
का प्रयोग (0.5 प्रतिशत
सान्द्रण) पान
की बेलों पर करते
हैं।
3-बोर्डोमिश्रण
तैयार करने के
विधि:- 01 किग्रा0 चूना
(बुझा चूना) तथा
01 किग्रा0 तुतिया
अलग-2 बर्तनों
में (मिटटी) 10-10 ली0 पानी
में भिगोकर घोल
तैयार करते हैं, फिर
एक अन्य मिटटी
के पात्र में दोनों
घोलों को लकडी
के धार पर इस प्रकार
गिराते हैं कि
दोनों की धार मिलकर
गिरे। इस प्रकार
तैयार घोल बोर्डामिश्रण
है। इस 20 ली0 मिश्रण
में 80 ली0 पानी
मिलाकर इसका 100 ली0 घोल
तैयार करते हैं
व इसका प्रयोग
पान की खेती में
करते हैं।

प्रयोग
विधि:-
1. भूमि शोधन
हेतु 24 घंटे पूर्व
पक्तियों में बोर्डोमिश्रण
के घार का छिड़काव
करते हैं।।
2. खडी फसल
मे माह में एक बार
बोर्डोमिश्रण
का प्रयोग जुलाई
से अक्टूबर तक
कर सकते हैं।
15- पान
की प्रमुख प्रजातियां:- उत्तर
भारत में मुख्य
रूप से जिन प्रजातियों
का प्रयोग किया
जाता है, वे
निम्न है- देशी, देशावरी, कलकतिया, कपूरी, बांग्ला, सौंफिया, रामटेक, मघई, बनारसी
आदि।
16- मिटटी
का प्रयोग:- पान
बेल की जडें बहुत
ही कोमल होती है, जो अधिक
ताप व सर्दी को
सहन नही कर पाती
है। पान की जडों
को ढकने के लिये
मिटटी का प्रयोग
किया जाता है।
जून, जुलाई में
काली मिटटी व अक्टूबर, नवम्बर
में लाल मुदा का
प्रयोग करते हैं।
17- निराई-गुडाई
व मेडें बनाना:- पान
की खेती में अच्छे
उत्पादन के लिये
समय-समय पर उसमें
निराई-गुडाई की
आवश्यकता होती
है। बरेजों से
अनावश्यक खरपतवार
को समय-समय पर निकालते
रहना चाहिये। इसी
प्रकार सितम्बर, अक्टूबर
में पारियों के
बीच मिटटी की कुदाल
से गुडाई करके
40-50 सेमी0 की
दूरी पर मेड बनाते
हैं व आवश्यकतानुसार
मिटटी चढाते हैं।


पान में
लगने वाले प्रमुख
कीट, रोग और
व्याधियां तथा
उनके रोकथाम के
उपचार:-
प्रमुख
रोग:-
(1) पर्ण/गलन
रोग:- यह फंफूद
जनित रोग है, जिसका
मुख्य कारक “फाइटोफ्थोरा
पैरासिटिका” है।
इसके प्रयोग से
पत्तियों पर गहरे
भूरे रंग के धब्बे
बन जाते हैं, जो वर्षाकाल
के समाप्त होने
पर भी बने रहते
हैं। ये फलस को
काफी नुकसान पहुंचाते
हैं।
रोकथाम
के उपायें:-
1 रोग
जनित पौधों को
उखाडकर पूर्ण रूप
से नष्ट कर देना
चाहिये।
2. इस रोग
के मुख्य कारक
सिंचाई है। अतः
शुद्व पानी का
प्रयोग करना चाहिये।
3. वर्षाकाल
में 0.5 प्रतिशत
सान्द्रण वाले
बोर्डोमिश्रण
या ब्लाइटैक्स
का प्रयोग करना
चाहिये।
(2) तनगलन
रोग:- यह भी फंफूद
जनित रोग है, जिसका
मुख्य कारक “फाइटोफ्थोरा
पैरासिटिका” के पाइपरीना
नामक फंफूद है।
इससे बेलों के
आधार पर सडन शुरू
हो जाती है। इसके
प्रकोप से पौधो
अल्पकाल में ही
मुरझाकर नष्ट हो
जाता है।
रोकथाम
के उपायें:-
1 बरेजों
में जल निकासी
की उचित व्यवस्था
करना चाहिये।
2. रोगी पौधों
को जड से उखाडकर
नष्ट कर देना चाहिये।
3. नये स्थान
पर बरेजा निर्माण
करें।
4. बुवाई
से पूर्व बोर्डोमिश्रण
से भूमि शोधन करना
चाहिये।
5. फसल पर
रोग लक्षण दिखने
पर 0.5 प्रतिशत
बोर्डोमिश्रण
का छिडकाव करना
चाहिये।
(3) ग्रीवा
गलन या गंदली रोग:- यह
भी फंफूदजनित रोग
है,
जिनका
मुख्य कारक “स्केलरोशियम
सेल्फसाई” नामक
फंफूद है। इसके
प्रकोप से बेलों
में गहरे घाव विकसित
होते है, पत्ते
पीले पड़ जाते
हैं व फसल नष्ट
हो जाती है।
रोकथाम
के उपायें:-
1 रोग जनित
बेल को उखाडकर
पूर्ण रूप से नष्ट
कर देना चाहिये।
2. फसल के
बुवाई के पूर्व
भूमि शोधन करना
चाहिये।
3. फसल पर
प्रकोप निवारण
हेतु डाईथेन एम0-45 का 0.5 प्रतिशत
घोल का छिडकाव
करना चाहिये।
(4) पर्णचित्ती/तना
श्याम वर्ण रोग:- यह
भी फंफूद जनित
रोग है, जिसका मुख्य
कारक “कोल्लेटोट्राइकम
कैटसीसी” है।
इसका संक्रमण तने
के किसी भी भाग
पर हो सकता है।
प्रारम्भ में यह
छोटे-काले धब्बे
के रूप में प्रकट
होते हैं, जो नमी
पाकर और फैलते
हैं। इससे भी फसल
को काफी नुकसान
होता है।
रोकथाम
के उपायें:-
1. 0.5 प्रतिशत बोर्डोमिश्रण
का प्रयोग करना
चाहिये।
2. सेसोपार
या बावेस्टीन का
छिडकाव करना चाहिये।
(5) पूर्णिल
आसिता या;च्वूकतल
डपसकमूद्ध रोग:- यह
भी फंफूद जनित
रोग है, जिसका मुख्य
कारक ”आइडियम
पाइपेरिस“ जनित
रोग हैं। इसमें
पत्तियों पर प्रारम्भ
में छोटे सफेद
से भूरे चूर्णिल
धब्बों के रूप
में दिखयी देते
हैं। ये फसल को
काफी नुकसान पहुंचाते
हैं।
रोकथाम
के उपायें:-
1 फसल पर
प्रकोप दिखने के
बाद 0.5 प्रतिशत
घोल का छिडकाव
करना चाहिये।
2. केसीन
या कोलाइडी गंधक
का प्रयोग करना
चाहिये।
(6) जीवाणु
जनित रोग:- पान
के फसल में जीवाणु
जनित रोगों से
भी फसल को काफी
नुकसान होता है।
पान में लगने वाले
जीवाणु जनित मुख्य
रोग निम्न है:-
क- लीफ
स्पॉट या पर्ण
चित्ती रोग:- इसका
मुख्य कारक ”स्यूडोमोडास
बेसिलस“ है।
इसके प्रकोप होने
के बाद लक्षण निम्न
प्रकार दिखते हैं।
इसमें पत्तियों
पर भूरे गोल या
कोणीय धब्बे दिखाई
पडती है, जिससे
पौधे नष्ट हो जाते
हैं।

रोकथाम
के उपायें:-
1 इसके
नियंत्रण के लिये
”फाइटोमाइसीन
तथा एग्रोमाइसीन-100“ ग्लिसरीन
के साथ प्रयोग
करना चाहिये।
ख- तना
कैंसर:- यह लम्बाई
में भूरे रंग के
धब्बे के रूप में
तने पर दिखायी
देता है। इसके
प्रभाव से तना
फट जाता है।
रोकथाम
के उपायें:-
1 इसके
नियंत्रण के लिये
150 ग्राम
प्लान्टो बाईसिन
व 150 ग्राम
कॉपर सल्फेट का
घोल 600 ली0 में
मिलाकर छिडकाव
करना चाहिये।
2. 0.5 प्रतिशत
बोर्डोमिश्रण
का छिडकाव करना
चाहिये।
ग- लीफ
ब्लाईट:- इस प्रकोप
से पत्तियों पर
भूरे या काले रंग
के धब्बे बनते
हैं, जो पत्तियों
को झुलसा देते
हैं।

रोकथाम
के उपायें:-
1 इसके
नियंत्रण के लिये
स्ट्रेप्टोसाईक्लिन
200 पी0पी0एम0 या
0.25 प्रतिशत
बोर्डोमिश्रण
का छिडकाव करना
चाहिये।
पान
की खेती को अनेक
प्रकार के कीटों
का प्रकोप होता
है,
जिससे
पान का उत्पादन
प्रभावित होता
है। पान की फसल
को प्रभावित करने
वाले प्रमुख कीटो
का विवरण निम्न
है:-
1. बिटलबाईन
बग:- जून से अक्टूबर
के मध्य दिखायी
देने वाला यह कीट
पान के पत्तों
को खाता है तथा
पत्तों पर विस्फोटक
छिद्र बनाता है।
यह पान के शिराओें
के बीच के ऊतकों
को खा जाता है, जिससे
पत्तों में कुतलन
या सिकुडन आ जाती
है और अंत में बेल
सूख जाती है।
उपचार:-
1. इसके
नियंत्रण के लिये
तम्बाकू की जड
का घोल 01 लीटर घोल
का 20 ली0 पानी
में घोल तैयार
कर छिडकाव करना
चाहिये।
2. 0.04 प्रतिशत
सान्द्रता वाले
एनडोसल्फान या
मैलाथियान का प्रयोग
करना चाहिये।
2. मिली
बग:- यह हल्के रंग
का अंडाकार आकार
वाला 5 सेमी0 लंबाई
का कीट है, जो सफेद
चूर्णी आवरण से
ढ़का होता है।
यह समूह में होते
हैं व पान के पत्तों
के निचले भाग में
अण्डे देता है, जिस
पर उनका जीवन चक्र
चलता है। इनका
सर्वाधिक प्रकोप
वर्षाकाल में होता
है। इससे पान के
फसल को काफी नुकसान
होता है।

उपचार:-
1. इसको
नियंत्रित करने
के लिये 0.03-0.05 प्रतिशत
सान्द्रता वाले
मैलाथिया्रन घोल
का छिडकाव आवश्यकतानुसार
करना चाहिये।
3. श्वेत
मक्खी:- पान के
पत्तों पर अक्टूबर
से मार्च के बीच
दिखने वाला यह
कीट 1-1.5 मिमी0 लम्बाई
व 0.5-1 मिमी0 चौड़ाई
के शंखदार होता
है। यह कीट पान
के नये पत्तों
के निचले सतह को
खाता है, जिसका
प्रभाव पूरे बेल
पर पडता है। इसके
प्रकोप से पान
बेल का विकास रूक
जाता है व पत्ते
हरिमाहीन होकर
बेकार हो जाते
हैं।
उपचार:-
1. इसके
नियंत्रण हेतु
0.02 प्रतिशत
रोगार या डेमोक्रान
का छिडकाव पत्तों
पर करना चाहिये।
4. लाल
व काली चीटियां:- ये
भूरे लाल या काले
रंग की चीटियां
होती है, जो पान
के पत्तों व बेलों
को नुकसान पहुंचाती
है। इनाक प्रकोप
तब होता है जब माहूं
के प्रकोप के बाद
उनसे उत्सर्जित
शहद को पाने के
लिये ये आक्रमण
करती है।
नियंत्रण
व उपचार:-
1.
इनको
नियंत्रित करने
के लिये 0.02 प्रतिशत
डेमोक्रॅान या
0.5 प्रतिशत
सान्द्रता वाले
मैलाथियान का प्रयोग
करना चाहिये।
5. सूत्रकृमि:- पान
में सूत्रकृमि
का प्रकोप भी होता
है। ये सर्वाधिक
नुकसान पान बेल
की जड़ व कलमों
को करते हैं।
नियंत्रण
व उपचार:-
1. इनको
नियंत्रित करने
के लिये कार्वोफ्युराम
व नीमखली का प्रयोग
करना चाहिये। मात्रा
निम्न है:-
कार्बोफ्युराम
1.5 किग्रा.
प्रति है. या नीमखली
की 0.5 टन मात्रा
में 0.75 किग्रा.
कार्वोफ्युराम
का मिश्रण बनाकर
पान की खेती में
प्रयुक्त करना
चाहिये।
*
अनिल
कुमार श्रीवास्तव
जिला उद्यान अधिकारी, महोबा।
(PIB
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SS-250/SF-250/28.11.2014
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